'पत्रकार' शब्द सुनते ही जहन में एक छवि उभर आती है जो या तो टेलीविजन पर एक माइक के साथ खड़ा होता है या हाथ में डायरी और पेन लिए खडा होता है. एक दशक पहले तक भी पत्रका रिता को
एक मिशन माना जाता था ले किन आज पत्रकारिता अपनी ही अलग पटरी बनाकर दौड़ रही है. यानी पत्रकारिता अब पू र्णतया व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है.
एक मिशन माना जाता था ले
आज मीडिया के क्षेत्र में पत्रकारों का चुनाव उनकी योग्यता के आधार पर न होकर उनके सूत्रों तथा उनके पद को ध्यान में रखकर किया जाता है. युवा पत्रकारों का स्तर आज उतना अच्छा नही है जैसा मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों का है. इसी कारण पत्रकारिता का स्तर गिरता चला जा रहा है. देखा जाए तो इन सब के लिए जो जिम्मेदार है वह है जगह- जगह पर दुकानों की तरह खुलते मीडिया के शिक्षण संस्थान ! ये संस्थान कम गुणवत्ता और कम वेतनमान पर अपनी ओर से शिक्षकों को रखते हैं जिनमे अनुभव और ज्ञान की कमी होती हैं. परन्तु इन सभी के हाथ में डिग्री दे दी जाती है.
यहाँ पढ़कर निकले छात्रों में ज्ञान का अभाव होता है इसलिए ये मीडिया के क्षेत्र में ज्यादा बेहतर स्थान पा ने में असमर्थ रह जाते हैं. यही हाल विश्व विद्यालय अनुदान प्राप्त कोलेजों का भी है. इनमे दी जाने वाली उच्च शिक्षा निम्न स्तर की है. यहाँ पिछले डेढ़ दशक से एक ही घिसा- पिटा कोर्स पढ़ाया जा रहा है जो आज के युग में बिल्कुल रददी माना जा सकता है . इस तकनीकी युग में जब हर दिन एक नयी तकनीक का विस्तार और आविष्कार हो रहा है तो वहां इस कोर्स की क्या अहमियत होगी. आज 3डी, नए कैमरा सेट–अप, न्यू मीडिया का प्रचलन बढ़ गया, तो भी कोर्स सब कुछ ज्यों का त्यों ही है.
आज जब न्यू मीडिया पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी गहरी पैठ बनाने की हो ड़ में है तो भी वहां ये कॉलेज और संस्थान उस निरर्थक कोर्स को पढ़ाकर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा समझ हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाते हैं .जब कोई छात्र अपनी डिग्री लेकर कोई इंटरव्यू देने जाता है तो कोई उससे यह जानने का इच् छुक नही होता कि हिंदी का उद्भव या विकास कब हुआ था ? यह पढाई तो उसी कमरे की खिड़की से कचरे की तरह बाहार फेंक दी जाती है जिसमे वह डिग्रीधारक नौकरी के लिए जाता है . यहाँ से डिग्री देते समय भी संस्थान यह आंकलन तक नही करते कि हमारे छात्रों में कितनी काबिलियत है.
इन कॉलेज या संस्थानों में यह भी ध्यान नहीं दिया जाता कि क्या वे इन छात्रों की जरूरते पूरी कर रहे है या नहीं ? मीडिया के छात्रों को व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए लैब और लाइब्रेरी की आवश्यकता होती है पर कॉलेज ने इसकी कोई जरुरत कभी नही समझी . विडम्बना यह है कि विश्व विद्यालय के इन छात्रों ने किसी कैमरे के लेंस से यह झांककर भी नहीं देखा कि इससे देखने पर बाहर की दुनिया कैसी दिखती है .
छात्रों को पत्रकारिता में दाखिला और अपने तीन साल कॉलेज में बिताने के बदले एक डिग्री प्रत्येक छात्र को दे दी जाती है . ये एक ऐसा सर्टिफिकेट होता है जो किसी छात्र को ‘बेरोजगार पत्रकार ’ बना देता है . कुछ डिग्रीधारकों को छोटी –मोटी पत्रकारिता करने का अवसर मिल जाता है तो उन्हें सफल होने में कई साल लग जाते हैं . इसका कारण यह है कि जो उसे पढ़ाई के समय पर सिखाया जाना चाहिए था उसे वो धक्के खाने के बाद सीखने को मिलता है . कुछ छात्रों में इतनी हताशा घर कर जाती है कि वे भटक जाते हैं .
इस तरह , कॉलेज तथा संस्थान युवाओं के भविष्य के साथ धोखा और भटकाव की स्थिति उत्पन्न करने के लिए उत्तर दायी हैं . इन गैर - जिम्मेदाराना रवैये को नजर अंदाज़ नही किया जाना चाहिए . जल्द ही कुछ उपाए करने होंगे ताकि गुणवत्ता वाले पत्रकार उभर सकें . कम्प्यूटर की बेहतर शिक्षा , लैब और लाइब्रेरी की जरूरतों को पूरा करना जरूरी होना चाहिए .
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