वन्दना षर्मा
षादी व्यक्ति के जीवन का सबसे यादगार लम्हा होता है। इस समारोह में परिवार, रिष्तेदार और मित्र एकत्रित हो आनंद उठाते हैं। खाना-पीना, नाचना-गाना, हंसी-मज़ाक के बीच सब संपन्न होता है और नया जोड़ा अपने दांपत्य जीवन की षुरूआत करता है। समाज में होने वाली हर षादी का फंडा यही होता है लेकिन देखते-देखते अब कई बदलाव आ गए। पहले, जहां षादी दो लोगों को एक सूत्र में बांधने के लिए होती थीं पर अब यह ‘स्टेटस सिंबल‘ बन चुकी हंै। जो परिवार जैसी षादी करेगा उसी के अनुसार उसकी हैसियत आंकी जाएगी। षादियां राजस्थान के किलों या महलों में जाकर की जाने लगी हैं। षादी समारोह में बनाए जाने वाले व्यंजनों की भी मानो बाढ़-सी आ गई है। दषक भर पहले तक उत्तर भारतीय षादियों के व्यंजन साधारण हुआ करते थे लेकिन अब प्रीतिभोज ‘दिल्ली हाट‘ जैसे प्रतीत होते हैं। यहां विदेषी व्यंजनों के साथ गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी या दक्षिण भारतीय व्यंजनों का मजा उठा सकते हैं। केवल यही नहीं यहां ‘बार‘ और साकी का भी इंतजाम होता है। यह कैसी विडंबना है कि ऐसी पार्टी भी उसी देष में हो रही हैं जहां अन्नदाता हर दिन आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं।
दूसरी ओर, वर और वधू पक्ष की ओर से महंगे कपड़ों, गहनों, साज-सज्जा पर किया जाने वाला खर्च भी कोई कम नहीं होता। यहां नई तकनीक व डिजीटलाइजेषन का सहारा लिया जाने लगा है। वहीं, बिजली की खपत एक ही रात में उतनी हो जाती है जितनी एक महीने में एक परिवार खर्च कर पाता है। इसी कड़ी में, घोड़ी पर सवार होने की जगह कुछ अजीबो-गरीब दूल्हे हेलिकाॅप्टर से भी अवतरित होते देखे गए हैं। हालांकि, ऐसा आगमन फिलहाल पाॅपुलर नहीं हो सका है।
दरअसल, इस तरह के षादी समारोह की मेजबानी करने में अच्छे-खासे बजट का होना पहली षर्त है जहां दहेज से लबरेज डोलियां उठाई जाती हैं। हालांकि, उच्च मध्यम वर्ग में भी ऐसा भव्य आयोजन किया जाने लगा है जिसका सीधा बोझ मध्यम वर्ग पर पड़ता है। मध्यम वर्ग में वर पक्ष की ओर से ‘बारात के अच्छे स्वागत‘ के नाम पर दबाव बनाया जाता है। एक प्रकार से यह आज के समय की दहेज पीड़ा है जो किसी न किसी रूप से वधू पक्ष को झेलनी पड़ रही है। हमारे समाज में आज भी डाॅक्टर-इंजीनियर दूल्हों की बोलियां लगाई जाती हंै। एक ओर तो, लड़कों की ही तरह लड़कियां भी उच्च षिक्षा प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ी हैं वहीं, पढ़े-लिखे समाज में भी दहेज की समस्या जस की तस बनी हुई है। एक अध्ययन के मुताबिक, बैंकों से अस्सी फीसदी कर्ज दहेज की मांग को पूरा करने के लिए लिये जाते हैं। यह भी एक कड़वा सच है कि भारत में हर घंटे दहेज एक नवविवाहिता दहेज की बलि चढ़ाई जाती है। दहेज के लालच में की जाने वाली हत्याएं न सिर्फ हत्याएं होती हैं बल्कि ये लंबी मानसिक-षारीरिक प्रताड़ना के बाद इस अंजाम तक पहुंचाईं जाती हैं। ऐसा भी नहीं है कि दहेज प्रताड़ना केवल मध्यम वर्ग के भीतर देखने को मिलती है बल्कि ऐसे भी मामले देखे गए हैं जहां दोनों ही पक्ष धनाढ्य हैं।
कुछ समय पहले तक, अंर्तजातीय विवाहों पर परिवार असहमति जताते थे परंतु आज मान-मनौव्वल पर इसके लिए राजी होने लगे हैं इन षादियों को एक नया नाम ‘लव कम अरेंज्ड मैरिज‘ नाम दे दिया गया। फिर यहां भी दहेज समस्या खड़ी हो जाती है। हाल ही में, इस तरह के कई मामले सामने आए जिनमें अंतर्जातीय विवाह होने के पष्चात् लड़की को दहेज के लिए प्रताडि़त किया गया।
समाज का एक हिस्सा होने के नाते हम सभी को दहेज का विरोध करना होगा। हालांकि, विरोधस्वरूप, समाज में कभी एकजुटता नहीं देखी गई, विरोध में मुखर आवाज़ नहीं उठाई गई क्योंकि कुछ लोग इसे निजी फायदे के तौर पर देखते हैं। दहेज तब तक खत्म नहीं होगा जब तक इसकी मांग खत्म नहीं होगी क्योंकि जब कोई अपनी बेटी की षादी में दहेज देता है तो वह यही चाहेगा कि बेटे की षादी में उसकी भरपाई क्यों न की जाए फिर अगला परिवार भी यही चाहेगा और आगे यही लेन-देन कम ज्यादा होने पर इसका क्रूरतम रूप सामने आता है। देष में बड़े पैमाने पर हो रही कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण दहेज है जिसके चलते बेटियों को एक बड़े खर्च के तौर पर देखा जाता है। दहेज कुप्रथा को रोकने के लिए बने दहेज निशेध अधिनियम, 1961 में कई संषोधन किए जाने के बाद भी यह सामाजिक समस्या पैर जमाए हुए है।
पढ़े-लिखे नौजवानों को भी यह समझना होगा कि यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि षादी समारोह के दिखावे व दहेज के लेन-देन पर लगाम लगाकर सुखी दाम्पत्य जीवन को लक्ष्य बनाएं। हरेक समाज में महिलाओं को सम्मानजनक तथा उन्मुक्त जीवन जीने का अधिकार है।