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Wednesday, February 22, 2012

देखें इन मेहनतकशों को...

आज कुछ मेहनतकश लोगों से रू- ब- रू होने का मौका मिला.ये सभी बुनकर दिल्ली में राजघाट पर तीन दिनों के लिए 'बा' को श्रद्धांजलि देने के लिए यह आये  हैं.  हम सभी के लिए ये सुन लेना आम बात है कि इन बुनकरों को अपनी मेहनत का कुछ भी हिस्सा नही मिल पाता. जब मॉल में जाकर हम लोग महंगे कपड़े खरीदते हैं तब एक बार कम से कम एक बार इन गरीबों का चेहरा ध्यान कर लेना चाहिए. पूरे भारत में आज भी जगह- जगह अपनी महनत और कला को किसी तरह ये लोग बचानकी कोशिश में जुटे हुए हैं. इस परेशानी को लेकर सरकार तक ने इनके हित में अभी तक कोई कदम नही उठाये हैं . क्या सरकार इनके ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही है?

इनके बीच बैठकर एक और बात पता चली कि चरखा या सूत कातने का काम अधिकतर महिलायें या बच्चे ही किया करते हैं. लेकिन इनसे जो कमाई होती है वो पुरुषों की जेब में ही जाते हैं. इसके लिए इन बुनकर महिलाओं को आगे आने की कोशिश करनी चाहिए ताकि अपना अधिकार पा सकें.
ये जानकार आपको आश्चार्य होगा कि सरकार ने बीते साल भारत से 20 बुनकरों को चीन भेजा ताकि वे वहां के लोगों को साड़ियाँ बनानी सिखा सकें...जब चीन ये सब सीखने जा रहा है तो क्या भारत इसे ख़त्म क्यों करना चाहता है.

Sunday, February 19, 2012

वैकल्पिक पत्रकार बन चुके हैं- सिटिजन जर्नलिस्ट


न्यू मीडिया के बढ़ते प्रचलन से आज दुनिया में इसके कई रूप सामने आए हैं। मीडिया का चेहरा हर दिन बदलता जा रहा है जो अपने साथ एक नयापन लिए बेखौफ होकर चलता जा रहा है। अनेक क्षेत्रों को न्यू मीडिया ने अपने अंदर समेट लिया है।
न्यू मीडिया ने एक बड़ा मंच दिया है सिटिजन जर्नलिस्ट को। न्यू मीडिया में सिटिजन जर्नलिस्ट की परिकल्पना को अभी ज्यादा समय भी नहीं हुआ है और आम जन के बीच पूरी तरह से फैल गया है। सिटिजन जर्नलिज्म के कारण ही आज मीडिया की बची- खुची विश्वसनीयता कायम है।
मीडिया की पारदर्शिता के लिए सिटिजन जर्नलिज्म बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। अब दर्शक या पाठक अपनी भूमिका को बेतरह समझने लगा है। ‘लैटर-टू-एडिटर‘ या ‘हां या ना‘ के संदेशों से आगे निकलकर दर्शक अधिक सक्रिय हो गया है। आम आदमी सूचनाओं को हथियार के तौर पर प्रयोग करने में सक्षम हो चुका है।
वेब जर्नलिज्म ने सिटिजन जर्नलिज्म को एक अच्छी दिशा प्रदान की है। ब्लॉग, वेबसाइट्स या सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से लोग अपनी स्टोरी कवरेज को अन्यों तक पहुंचाने में कामयाब हैं। हजारों लोगों ने किसी खास मुद्दे को लेकर अपनी बेवसाइटें बनाई हुई है और खुद के साथ अन्यों को भी जोड़ा।
भारम के उत्तरी-पूर्वी राज्यों में आज भी मीडिया अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकी है इसलिए वहां की जनता ने खुद ही संयुक्त योगदान से न्यूज कलेक्शन शुरू कर दिया। इसे आम लोगों के लिए खुला रखा गया हैतिसमें अपने क्षेत्र की कोई भी खबर या स्टोरी का अपलोड कर सकता है।
अपनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक सिटिजन जर्नल्स्टि को कई बुनियादी चीजों की जरूरत होती है। अपनी रिपोर्ट या स्टोरी को वे अपनी हैंड कैमेरा, फोन, इंटरनेट, या फिर वॉयस रेकॉर्डिंग  के जरिये लोगों  या कम्यूनिटीज के बीच पहुंचाते हैं। सिटिजन जर्नलिस्ट आज बिना किसी प्रोफेश्नल ट्रेनिंग के ही अपनी बात एक बड़े स्तर प्रेषित कर सकते हैं। जिससे बिना किसी व्यय के सूचना एक बड़े पैमाने पर खड़ी हो बिना समय लगाए तुरंत पहुंच जाती है।

जहां एक ओर वेब परियोजनाओं में लोग अपनी रचनाओं, लेखों या विचारों को भेज उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं वहीं सोशल नेटवर्किंग साइटों में विचार रखने के साथ-साथ बहस का मचं बना रहे हैं । समाचार पत्र, खबरिया चैनल और वेबसाइट्स आदि सभी अपने साथ सिटिजन जर्नलिस्ट को भी आवश्यक स्थान देने लगे हैं। आज आम लोगों द्वारा अपने ब्लॉग  पर किसी विशेष विषय पर किये गए लेखन को ब्लॉग  से समाचार पत्रों में विशिष्ट कॉलम  दिया जाने लगा है।
सिटिजन जर्नल्स्टि के तौर पर काम करते हुए कुछ नागरिकों ने देश के लिए एक मिसाल भी कायम की है । जिसे आज भी लोग सम्मान से देखते हंै। इसका एक अच्छा उदाहरण विजय लक्ष्मी को माना जा सकता है जिसने लोकल ट्रेनों में  महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी से क्षुब्ध हो, संबंधित विभागों में धक्के खाकर आखिर महिलाओं को अपना हक दिलवाया, और एक महिला कोच की व्यवस्था करवाई।
ऐसी ही एक और कहानी शिव प्रकाश राय की भी रही, जिन्होंने अपने ऊपर लगे हेरा फेरी के झूठे मामले के लिए कई साल तक लंबी लड़ाई लड़ी और घूस के असली आरोपियों (सरकारी अधिकारी) का चेहरा लोगों के सामने लाये। 
आरटीआई ने आम जनता को एक बड़ा हथियार दिया है जिससे लोग अपनी आवश्यकतानुसार संबंधित विषय की जानकारी लेकर संबंधित विभाग की खामियों को आमजन से रूबरू करा देते हैं।
सिटिजन जर्नलिस्ट के इस बड़े योगदान को यहां तक पहुंचाने का भी श्रेय मीडिया को ही जाता है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आईबीएन-7 के रूप में देखा जा सकता है। राजदीप सरदेसाई ने जब इस चैनल की शुरूआत की तो चैनल की थीम सिटिजन जर्नलिस्ट ही रखकर लॉन्च किया गया था।
भारत में सिटिजन जर्नलिज्म को अभी और विस्तार करने की जरूरत है।  फिलहाल भारत में सिटिजन जर्नलिस्ट के रूप में भूमिका निभाने वाले जागरूक नागरिकों के पास अभी तक तकनीकी सुविधाओं की कमी है। समय के साथ -साथ उनके पास इस दिशा में सुधार होना लाजमी है तब ही भारत में एक विकसित सिटिजन जर्नलिज्म का होना संभव हो सकेगा। यदि सिटिजन जर्नलिज्म एक ओर सूचनाओं को प्रवाह देता है तो वहीं पारंपरिक मीडिया घरानों की तरह यहां भी इसका नकारात्मक पहलू सामने आ जाता है।
इसके नकारात्मक पहलू को ‘पीपुलराज्जी‘ के नाम से जाना जाता है। समाज के प्रतिष्ठित लोगों से जुड़े तथ्यों को तोड़ मरोड़कर पेश करने वाले सिटिजन जर्नलिस्ट इस क्षेत्र में घुन का काम करता है।
कुछ सालों पहले किसी व्यक्ति ने यक ऐसी वीडियो तैयार कर वेबसाइटों पर डाल चैनलों तक भी पहुंचाई थी जिसमें साईंबाबा की आंखों से आंसू निकल रहे थे। हालांकि इसे बाद में झूठी फुटेज साबित कर दिया गया था। इस वीडियो को देख लाखों भक्त मंदिर में पहुँच गए थे जिनकी भावनाओं को केवल ठेस पहुंची। 
लोग बेवजह नाम कमाने के लालच में आकर झूठे और अटपटे फुटेज बनाकर पेश कर दते हैं। जो समाज या किसी अन्य व्यक्ति के लिए मानहानि से जुड़ा मुददा बन जाता है। इसलिए सिटिजन जर्नलिस्ट के साथ सतर्कता भी बरतनी जरूरी हो जाती है।  
गर गौर किया जाए तो लोकतंत्र के हनन और आम नागरिकों की उपेक्षा के जवाब में सिटिजन जर्नलिस्ट आगे आए हैं। फिर भी सतर्कता को कायम रखते हुए सच कहा जाए तो, सिटिजन जर्नलिज्म एक वैकल्पिक मीडिया मंच ही है।