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Friday, January 27, 2012

न्यू मीडिया बनाम बदलता विज्ञापन

      
न्यू मीडिया ने तेजी से बदलते समय में अपने बढ़ते वर्चस्व के साथ आज सब कुछ सांझा कर लिया है। बेहतर संचार के अलावा प्रचार-प्रसार के लिये विज्ञापन के नए पैमाने तैयार किए हैं। आज उत्पाद प्रोडक्ट बन गए हैं तो, उपयोगकर्ता यू.जर।
बीते कुछ सालों में ‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ का लगातार प्रचार हुआ है। हालांकि भारत में अभी भी यह बिल्कुल नया ही है। ‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंगऑनलाइन एडवर्टाइजिंग का ही रूप है। समाचार पत्रों में विज्ञापन का बहुत पहले से आधिक्य रहा है। आजकल समाचार पत्रों में तो 60ः40 के अनुपात के अनुसार ही कार्य होता है। विज्ञापन अब समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और टेलीविजन से ऊपर उठकर अपने डिजिटल रूप में आ चुके हैं। टेलीविजन की स्क्रीन तथा अ.खबार के पन्नों से निकलकर विज्ञापन, कंम्प्यूटर और स्मार्ट फोन पर डिस्प्ले होता है। 
इंटरनेट कनेक्शन या इंटरनेट उपभोक्ता होने के साथ ही विज्ञापनों को लक्षित उपभोक्ता मिल ही जाते हैं। फेसबुक, ट्विटर, ऑरकुट, लिंक्डइन के अलावा भी कई अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से अलग-अलग ब्रांड्स के प्रोडक्ट का प्रचार किया जाने लगा है। प्रमोशन के लिए विभिन्न प्रयोग किये जाने लगे हैं। कुछ ब्लॉग्स के साथ भी प्रचार-प्रसार के लिये प्रयोग किये जाते हैं।  इसके लिए इन ब्लॉग्स को नया नाम ‘एडवर ब्लॉग‘ दिया गया है।
ई-मेल, वेबसाइट्स या वेबपेज के जरिये विज्ञापनों को लक्षित उपभोक्ता तक पहुंचाया जाता है। इसके अतिरिक्त लिंक्स देकर भी उपभोक्ता को विज्ञापनों से रू-ब-रू कराया जाता है।
‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ का सबसे बड़ा लाभ है कि यह कम खर्चीला है। अन्यथा किसी भी प्रोडक्ट के प्रमोशन के लिये अखबारों में विज्ञापन, पोस्टर, पैम्फ्लेट, साइनबोर्ड, हॉर्डिंग्स या मौखिक प्रचार माध्यमों में लाखों का खर्चा आता है। टेलीविजन की स्क्रीन पर 30 सेेकंड के लिए करोड़ों का खर्च आता है। न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग के अंतर्गत जिन उपभोक्ताओं के लिए बैनर या पॉपअप बनाये जाते हैं, उन्हें तैयार भी उसी के अनुरूप किया जाता है।
इन विज्ञापनों के लिए ग्राफिक डिजाइन को ही प्राथमिकता दी जाती है। मात्र प्रस्तुति से ही उपभोक्ता का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। विज्ञापनों के अन्य साधनों की ही तरह ऑनलाइन विज्ञापनों में भी विज्ञापित उत्पाद के लिये उपयुक्त स्थान चुना जाता है। उदाहरण के लिए फेसबुक के उपयोगकर्ताओं में सबसे अधिक युवा हैं। उपयोगकर्ताओं को मद्देनजर रखते हुए किताबें, शिक्षा संस्थान, पिज्जा ऑन कॉल, क्लॉदिंग्स, घड़ियां आदि के विज्ञापनों को ज्यादा तरजीह दी जाती है। वहीं किसी भी अन्य वेबसाइट के विज्ञापनों में लोन, प्लॉट, घर, टूर एंड ट्रेवल्स दिखते हैं।

‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ ने न्यू मीडिया मेें विज्ञापन की एक बड़ी इंडस्ट्री को जन्म दिया है। इन विज्ञापनों के द्वारा उपयोगकर्ता सीधे निर्माताओं के साथ संपर्क स्थापित करने में भी सक्षम रहता है। आजकल निर्माता अपने काम को और बेहतर बनाने के लिए विज्ञापनों के साथ फीडबैक का भी विकल्प साथ देने लगे है। स्मार्ट फोन होने से लक्षित उपभोक्ता व्यक्तिगत तौर पर भी जुड़ जाता है।  
भारत में जैसे-जैसे इंटरनेट का विस्तार हो रहा ह,ै लोगों के बीच अपनी पकड़ बना रहा है, वैसे-वैसे ‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ का प्रभाव भी बढ़ रहा है। इन विज्ञापनों को अपनी स्थानीय भाषा में भी तैयार किया जा सकता हैं। सस्ते होने के साथ-साथ यह उपभोक्ताओं को अपनी बात पहुंचाने का आसान व सुलभ तरीका भी है।
‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ यानी ऑनलाइन विज्ञापन दुनिया के किसी भी कोने तक अपनी पहुंच बनाए रखता है। अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देशों में लोगों के बीच ऑनलाइन शॉपिंग बहुत लोकप्रिय है लेकिन भारत में अभी भी इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है। बावजूद इसके यह यह कहना सही होगा कि आने वाले वर्षों में ‘न्यू मीडिया एडवर्टाइजिंग‘ का भविष्य और बेहतर होगा।

Monday, January 23, 2012

सहयोग दें ...

शाम होते ही सड़कों पर भीड़ जुटने लगती है . सभी एक दूसरे से आगे निकलने की चाह में भूल जाते है किआगे वाला भी हम जैसा ही इंसान है . बस में धक्का- मुक्की, मेट्रो की खचाखच भीड़ इन सब के लिए काफी है. हम तमाम ज़िन्दगी यही सुनते और सिखाते आये हैं जरुरत मंदों कि सहायता करनी चाहिए. लेकिन जब सड़कों पर देखने को मिलता है तो यह एक दुखदाई हकीकत नज़र आने लगती है. 
बात मेरे एक सफ़र के दौरान की ही है. करोलबाग से कश्मीरी गेट
की ओर जाते हुए मुझे जब खुद के कुछ ना करने पर खुद से लज्जित होना पड़ा. मै सीट पर बैठी थी कि एक स्टैंड पर बस रुकी. स्टैंड पर खड़ी उस भीड़ में एक विजुअल चैलेंज्ड व्यक्ति भी खड़ा था. शायद बस भी काफी देर बाद वहां पहुंची होगी , लोगों के बीच की हलचल से अंदाजा लगाया जा सकता था. दबी सी आवाज़ में लोगों से उस व्यक्ति ने दो तीन बार पूछा-
'यह बस कहाँ की  है?'
भीड़ ने उसे धक्के दे, अनसुना कर उसे उसकी जगह से ही घुमा दिया और
बस की ओर लपकने लगे. और मैंने ये नज़ारा सिर्फ देखा इस पर मैंने कुछ नही किया जबकि मै उसके लिए बस रुकवाकर या लोगों से उस दुर्व्यवहार के लिए ऐसा दोबारा न करने की भी अपील कर सकती थी. उस व्यक्ति से ज्यादा तब मुझे अपने अन्दर की डिसबिलिटी महसूस हुई. 
लेकिन उसके बाद आज तक ऐसा कभी नही हुआ कि मैंने ऐसे लोगों को सही रास्ता  ना दिखाया हो फिर चाहे वे ढका खाने वालों में हों या देने वालों में. 
मैंने ये वाक़या आप लोगों के बीच इसलिए रखा है कि आप भी यदि मेरे जैसे हैं तो महसूस करें की इन लोगों को दया की नही बल्कि केवल सहयोग की
जरूरत है.      

Monday, January 2, 2012

सियासी दांवपेचों में फंसी जनता


शीतकालीन सत्र को आगे बढ़ाकर देर रात तक उस पर बहस होने के बावजूद, उसे फाड़ कर फेंक देना, शोर मचाना और फर अनिश्चितकाल के लिए टाल देना. सरकार और अन्य राजनैतिक दलों का यह रुख देख साफ़ हो चुका है की कोई भी दल इस बिल को  पास कराने के मूड में नही है. उधर ममता दी जो खुद कांग्रेस का ही घटक है  सहमति नही जता पा रही है

187 संशोधनों को लेकर विवाद पैदा कर यह माहौल बनाया गया है कि एक विराट समस्या के चलते बिल वापिस अटक गया. जनता और अन्ना टीम को चुप रहने के लिए आश्वासन दिया गया कि आगे इस पर बात की जायगी. वहीँ अन्ना टीम के जादू का असर भी कुछ कम दिखने लगा है.


 सवाल ये है की जनता क्या सिर्फ भीड़ जुटाने और फिर सरकार के बहकावे में आने के लिए रह गई है. आरोप-प्रत्यारोप  तो शुरू से ही अन्ना टीम और सरकार के साथ-साथ चले हैं लेकिन अब जनता का क्या होगा जो इस धोखे  का शिकार बन गई. अपना काम काज छोड़ जो लोग दिन रात सड़कों पर 'भारत माता की जय' और 'भ्रष्टाचार छोड़ोके नारे लगाते रहे उनका क्या? सियासी दांवपेचों में जनता हमेशा से पिसती आई है क्या यह आगे भी यू हीं पिसती रहेगी?  

जनता के साथ इस तरह खिलवाड़ करना लोकतंत्र ना होकर तानाशाही ही है. जब भोली भाली जनता को राजस्व में भारी नुकसान का हवाला देकर डीजल और पेट्रोल से लेकर खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी की जाती है. और उसी दौर में छोटे बड़े पदों पर तथाकथित काम करने वालों के पास अरबों की संपत्ति (आय से अधिक) पाई जाती है. इनके साथ भी वही होगा जो कनिमोझी के साथ हुआ थोड़े ही दिनों में अपने घर वापिस लौट आना....लेकिन सरकारी नुकसान की भरपाई करने के लिए जनता को ही आगे कर दिया जाता है कोई इनसे कुछ अपेक्षा क्यों नही करता?

Sunday, January 1, 2012

आप सभी को नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं.....

आप सभी को नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं.....

आज नए साल का पहला दिन है मौसम का कुछ ठंडा सा मिजाज़ है... नया साल आया और साथ कुछ नयी उम्मीदें भी लाया...आशा है बीते साल यानी 2011 में जो अच्छा हुआ वो और अच्छा हो और जो अच्छा नहीं हुआ वो वक़्त कभी ना लौटे... 
इस साल हम सभी के जो भी कुछ नए प्लान्स हैं, रेसोल्युशंस हैं या नई उम्मीदें है सब उसी के मुताबिक हो...
                                 ॐ श्री गणेशाये नम:
 




पहले की तरह होना ही पड़ता है...

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सुबह नींद जल्दी खुल गई थी। बाहर झांककर देखा तो कुछ बच्चे बड़े-बड़े बैग लिए बातें करते स्कूल जा रहे थे। दोनों अपनी सी उम्र की उलझनों को आपस में शेयर कर रहे थे। उनमें से एक छोटी लड़की ने पहले अपनी बात रखी। उसका कहना था कि उसकी हिंदी विषय की नोटबुक कहीं खो गई है, जो आज स्कूल में चैक भी होनी है। इस पर दूसरे का कहना था कि आज उसका साइंस का टैस्ट है जिसके बारे में उसने कुछ नहीं पढ़ा। सुनकर मुझे भी अपने स्कूल के बीते दिन याद आ गए जब मैं भी इसी तरह अपनी कई बचकानी सी बातों पर परेशान हो बैठती थी।खैर, ये तो बच्चों की अपनी-अपनी छोटी मगर उनके लिए बड़ी परेशानियां होती हैं। जो
टीचर की एक डांट के बाद मानो खत्म ही हो जाती है। लेकिन जब हम बड़े हो जाते हैं तब  परेशानियां भी हमारे साथ-साथ बड़ी होती जाती हैं। घर की, करियर की चिंता और न जाने कितनी तरह की परेशानियों के बोझ को हम अब अपने साथ लिये चलते हैं। 

जब हम किसी परेशानी में पड़ जाते हैं तो कभी-कभी उनसे उबर पाना भी मुश्किल हो जाता है। समस्याएं ऐसा विकराल रूप ले जाती हैं कि कोई रास्ता न.जर नहीं आता। मन में एक खमोशी सी पसर जाती है। सबकुछ छोड़ कहीं दूर भागने का मन करने लगता है। लेकिन विडंबना है कि हम चाह कर भी ऐसा कुछ नहीं कर सकते।
उस बुरे वक्त में हंसी भी हंसने जैसी नहीं लगती। उदासियों में सिर्फ अकेलापन अच्छा लगने लगता है। पास बैठा शख्स अगर किसी बात पर हंसने लगे तो वो बहुत बुरा लगने लगता है। परिवार और मित्रों से हमारे बीच के फासले बढ़ जाते हैं। ऐसा महसूस होता है कि हमें सिर्फ जीना है। न कुछ अच्छा पहनने का मन और न कुछ लजीज खाने की इच्छा।
 
उन सबके बावजूद हम हिम्मत नहीं हारते और कुछ वक्त बाद हमें पहले की तरह होना ही पड़ता है। धीरे-धीरे सब लौट आता है। जख्म भरने लगते हैं। मन और कठोर होकर हमें सहन करने की एक शक्ति दे जाता है। उदासियां भी बहुत कुछ सिखा जाती हैं। ध्यान दिया जाए तो इसी समय यह पता चलता है कि जब कोई पास नहीं होता तब सिर्फ एक हमारा परीवार ही हमारा रह जाता है। बाकी सबकी जिंदगी वैसी ही चलती रहती है।