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Thursday, March 31, 2011

धूल चाट कर निकले पाकिस्तानी

मैच शुरू होने से पहले दोपहर में ही सड़कें खाली देखकर ही लगने लगा था की ये मैच क्रिकेट का नहीं इंडिया का है. यह रात होने तक पता भी चल गया. मोहाली में हुए मैच के दौरान जो ख़ुशी वहां स्टेडियम में बैठे दर्शकों के बीच दिखाई दी उसे देखकर पता चल रहा था कि पूरा भारत एक है यानी हम सब एक हैं. टीम इंडिया के एक- एक चौके पर इंडिया... इंडिया... के नारे दर्शकों के बीच से होकर टी वी  के सामने बैठे हम सब के दिलों में भी सुनाई दे रहे थे. पूरा स्टेडियम तिरंगे  झंडे के साथ झूमता रहा. तिरंगे फहराते दर्शकों में इस तरह का भारी उत्साह और जोश इससे पहले हुए अन्य मैचों से सबसे अलग दिखाई दिया. जितना जोश भारतीय खिलाड़ियों में था दर्शक भी उसी उत्साह के साथ आये थे. इस मैच में सभी बड़ी हस्तियाँ दिखाई दीं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी को भी न्यौता दिया और उन्हें अपने देश को धूल चाटते हुए देखना पड़ा. इसके अलावा कई राजनेता और बॉलीवुड हस्तियों ने भी खूब मज़ा लिया. टीम इंडिया की सबसे अधिक हौसला अफजाई अभिनेत्री प्रीती जिंटा करती नज़र आईं. सोनिया गांधी और बेटे राहुल गाँधी भी कैमरे के आकर्षण का केंद्र बने रहे.
मोहाली में पाकिस्तानियों को हराते ही यानी
मैच ख़त्म होते ही पूरा भारत ख़ुशी से झूम उठा. टीम इंडिया की इस जीत से  देश में दूरियां और भेदभाव सब ख़त्म हो गया. न कोई हिन्दू था और ना कोई मुस्लिम. क्या मोहाली का जश्न, क्या आन्ध्र में और क्या दिल्ली के लोगों की ख़ुशी. सब तरफ ख़ुशी का माहौल बन गया. चारों तरफ एक दूसरे को बधाई देते लोग दिखाई दे रहे थे. जो मिल नही पाए वो एक-दूसरे को मैसेज भेज कर बधाई दे रहे थे.   खिलाड़ियों का खेल देखने से यही दिख रहा था कि आज ये खिलाड़ी नहीं सैनिक बन चुके  हैं जो देश की बागडोर थामे हुए हैं. पाकिस्तान को दम दिखाकर भारत के इन शेरों ने एक बार फिर अपना सर ऊंचा कर दिया है. अब बस यही उत्साह श्री लंका को भी दिखा देना है क्योंकि ये वर्ल्ड कप हमे ही लाना है.

Thursday, March 24, 2011

आरक्षण नही कौशल हो....

इस वर्ष के रेल बजट को पेश करते हुए रेल मंत्री ममता बनर्जी  ने उन लोगों से अपील की थी जो रेल की पटरियों को  रोक कर खड़े हो जाते हैं और परेशानियां पैदा करते  हैं. इनकी वजह से रेलवे को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है.
भारत में सभी को अपनी अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्रता दी गई है इसका प्रयोग सभी जितना हो सके उतना करने भी लगे हैं . यह प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात है कि वह अपना और देश का भला जानने लगा है .पर उसे यह समझ नहीं अता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित? जाट समुदाय द्वारा किया जा रहा लगातार इस तरह का विरोध प्रदर्शन उन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण  दे ना दे पर आम जनता को भारी परेशानियाँ जरूर दे रहा है. उन्हें यह क्यों नहीं पता कि  कारों में  घूमने वाले हुक्मरानों को किसी ट्रेन के रुक जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. फर्क तो उन्हें पड़ता है जो घंटों अपना काम छोड़ ट्रेन में बैठकर रास्ता खुलने की बाट जोहते हैं, होली पर अपने परिवार वालों से भी नही मिल पाते हैं.
जाट समुदाय के सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात करें तो यह आरक्षण की मांग करने का गलत तरीका तो है ही. यह मांग शांतिपूर्ण तरीकों से भी तो की जा सकती है. फिर क्यों ये लोग खाट बिछाकर कभी पंजाब -भटिंडा,चंडीगढ़  तो कभी दिल्ली- फरीदाबाद की ट्रेनों को रोककर खड़े हो जाते हैं. समुदाय की औरतें भी अपना चूल्हा- चौका लेकर यहाँ अपना विरोध प्रदर्शन कर रही हैं .

कभी गुर्जर- जाट तो कभी अन्य समुदायों का इतना विरोध करना बाकियों को भी यही रास्ता अपनाने के लिए उकसा रहा है.जिससे अशांति का माहौल पैदा हो जाता है. जाटों के लिए यही बेहतर होगा कि वे अपनी योग्यताओं पर ध्यान दे ना कि रेल की अलग -अलग पटरियों पर. हांलाकि हाई कोर्ट ने यह कह दिया है कि इन आन्दोलनकारियों के  खिलाफ सख्त कदम उठाये जाएँ ताकि ऐसी घटनाएं दोबारा न हो सकें. इस पर जाटों ने यह धमकी भी दी है कि यदि इनकी मांग नही मानी गई तो उनका दूसरा पड़ाव दिल्ली मुंबई की पटरियों की ओर होगा .
केंद्र और लगभग सभी राज्यों में सरकार ने जितना अधिक लाभ दिया जा सकता है आरक्षण देकर उतना दिया भी गया है. नौकरियों में इतना अधिक आरक्षण दिया जा चुका है कि सभी इस लालच के शिकार हो रहे हैं .यदि इन्हें आरक्षण दिया जाता है तो सामान्य वर्ग में रह कौन जायगा ? जो रह जायगा वो इतना उपेक्षित होकर नही रह पायगा और अपने आरक्षण के लिए भी आवाज़ उठायगा. एससी/ओबीसी/एसटी और अल्पसंख्यकों के नाम पर इतना आरक्षण देखकर लगता है कि सामान्य वर्ग होना एक अयोग्यता है. यह सामान्य वर्ग के छात्रों को तब महसूस कराया जाता जब अखबारों में खबर दी जाती हैं कि एडमिशन ख़त्म हो चुके है बची हुई सीटें  चाहें तो सामान्य वर्ग के छात्र आकर ले लें.

यदि आपके पास कौशल और योग्यता है तो आरक्षण की आवश्यकता ही क्या है? नौकरी चाहिए तो भूख हड़ताल ओरों को परेशान करने से क्या लाभ? सरकार इस तरह के आरक्षण देने में अक्षम है तो सिर्फ इसका रास्ता यही है कि कौशल को आगे लाने के लिए कदम उठाये जाएँ ताकि कोई पीछे ना रहे.शिक्षा व्यवस्था बेहतर कि जाए. और जिन्हें आरक्षण की आवश्यकता अब नही है स्थिति अच्छी है. उन्हें आरक्षण देना बंद करे. जो लोग आरक्षण के लाभार्थी हैं उनकी स्थिति देखी जाए कि उन्हें इसकी आवश्यकता है भी या नहीं . सरकार को अपना पुराना चश्मा उतारकर देखना होगा कि हर सामान्य वर्ग में आने वाला व्यक्ति या परिवार आर्थिक रूप से सुद्रढ़ नहीं होता और न ही हर निम्न वर्ग का परिवार गरीब.   

Wednesday, March 23, 2011

कभी तो याद करें...

आज स्वतन्त्र भारत का सपना अपनी आँखों में सजोंकर हंसते-हंसते मौत को गले लगाने वाले उन वीरों का बलिदान दिवस है, जिन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से  अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी थी। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत माता के इन तीनों पुत्रों को अंग्रेजों द्वारा भले ही फांसी देकर मार दिया गया हो लेकिन इनके द्वारा जलाई गयी क्रांति की ज्योति आज भी प्रत्येक भारतवासियों के दिलों में अमर है।

23 मार्च,1931 यानी आज के ही दिन इन क्रांतिकारियों को सांडर्स हत्याकांड में मौत की सजा दी गई थी। राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी देने के मुद्दे को अंग्रेजों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। अंग्रेजों को डर था कि यदि ये तीनों जीवित रहे तो भारत से अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर कभी भी उठ सकता।

भगत सिंह को सिर्फ उनके बलिदान के कारण ही महान नहीं माना जाता है बल्कि उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं की ओर देखें तो बाल्यकाल से ही उनकी देशभक्ति की मिशाल हमें देखने को मिलेगी। यह कहा जाता है कि जब भगत सिंह 12 वर्ष के थे उसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ। इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। भगत सिंह ने ही क्रांति के उद्दघोष 'इंक़लाब जिंदाबाद' उक्ति का निर्माण किया जो पूरे स्वतंत्रता संग्राम में अंत तक दोहराया जाता रहा।

भगत सिंह ने हमेशा यही कहा कि वे मुझे मार सकते हैं, मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर को ख़त्म कर सकते है मेरी आत्मा को नहीं। राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह ने 23 मार्च 1931 को हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमिट हो गए। अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों के प्रति भारत के जनमानस में उमड़े समर्थन के डर से फांसी के लिए मुकर्रर तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया।

यह भी माना जाता है कि जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे।

भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की यह नौजवान पीढ़ी स्वतन्त्र भारत में जन्मी हैं जो जानना भी नही चाहती कि ये आज़ादी हमे कितने बलिदानों के बाद नसीब हो पाई। यह आज विडम्बना का विषय बन गया है की हम उन्हीं वीरों की भूमि पर रहते हैं और उनका बलिदान दिवस कब आता है यह भी याद नही रख पाते।

समाचार पत्रों में आये नेताओं की बड़ी फोटो के साथ राजनैतिक विज्ञापनों, कैलंडर या कही से चलते हुए एसएमएस के आने से ही हमें ऐसा पता चल जाता है। बहुतेरों को तो पता भी नही चलता पर कोई  फर्क नही पड़ता। अखबारों में कोई बुद्धिजीवी भी अपनी कलम से  ऐसे विषय पर कुछ लिखना नही चाहते। जब हम अपने आदर्शों को भी याद नही रख पा रहे हैं तो इस पीढ़ी का भविष्य किस ओर जा रहा है यह एक सोचनीय विषय है? चलिए हम तो इन वीरों को नमन करें!