शाम होते ही सड़कों पर भीड़ जुटने लगती है . सभी एक दूसरे से आगे निकलने की चाह में भूल जाते है किआगे वाला भी हम जैसा ही इंसान है . बस में धक्का- मुक्की, मेट्रो की खचाखच भीड़ इन सब के लिए काफी है. हम तमाम ज़िन्दगी यही सुनते और सिखाते आये हैं जरुरत मंदों कि सहायता करनी चाहिए. लेकिन जब सड़कों पर देखने को मिलता है तो यह एक दुखदाई हकीकत नज़र आने लगती है.
बात मेरे एक सफ़र के दौरान की ही है. करोलबाग से कश्मीरी गेट
की ओर जाते हुए मुझे जब खुद के कुछ ना करने पर खुद से लज्जित होना पड़ा. मै सीट पर बैठी थी कि एक स्टैंड पर बस रुकी. स्टैंड पर खड़ी उस भीड़ में एक विजुअल चैलेंज्ड व्यक्ति भी खड़ा था. शायद बस भी काफी देर बाद वहां पहुंची होगी , लोगों के बीच की हलचल से अंदाजा लगाया जा सकता था. दबी सी आवाज़ में लोगों से उस व्यक्ति ने दो तीन बार पूछा-
'यह बस कहाँ की है?'
भीड़ ने उसे धक्के दे, अनसुना कर उसे उसकी जगह से ही घुमा दिया और
बस की ओर लपकने लगे. और मैंने ये नज़ारा सिर्फ देखा इस पर मैंने कुछ नही किया जबकि मै उसके लिए बस रुकवाकर या लोगों से उस दुर्व्यवहार के लिए ऐसा दोबारा न करने की भी अपील कर सकती थी. उस व्यक्ति से ज्यादा तब मुझे अपने अन्दर की डिसबिलिटी महसूस हुई.
लेकिन उसके बाद आज तक ऐसा कभी नही हुआ कि मैंने ऐसे लोगों को सही रास्ता ना दिखाया हो फिर चाहे वे ढका खाने वालों में हों या देने वालों में.
मैंने ये वाक़या आप लोगों के बीच इसलिए रखा है कि आप भी यदि मेरे जैसे हैं तो महसूस करें की इन लोगों को दया की नही बल्कि केवल सहयोग की
जरूरत है.
आप की बात सही है. लेकिन "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" की बात पर भी ध्यान देना चाहिए. बहुत से लोग केवल सलाह देते हैं, व्यवहार में वह कार्य नहीं करते.
ReplyDeletekyamujh par aakshep hai..? mai ese kaam ke liye salah ke saath saath amal bhi kari hu.. lekin jo farz ko daya nhi samajhna chahiye.
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