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Friday, September 21, 2012

अच्छा दिखना और देखना हमें खुद आना चाहिए


मेरी एक करीबी अच्छी मित्र का सुनाया हुआ एक बेहतरीन किस्सा सांझा कर रही हूं आप के साथ - 

एक बार गांधी जी रवीन्द्र नाथ टैगोर जी से मिलने उनके आश्रम गये। वहां उन्होने देखा कि टैगोर उनसे मिलने के लिए अपनी लंबी दाढ़ी और बालों को शीशे में देखकर संवार रहे हैं।

ये सब देख गांधी जी को हंसी आ गई और बोले टैगोर तुम्हें मुझसे मिलने के लिए इतनी तैयारी की कोई जरूरत नहीं है।

फिर टैगोर ने मुस्कराते हुए विनम्रता से उन्हें कहा- दरअसल, हम लोग जब किसी से मिलते हैं तो हमें अच्छा दिखना चाहिए।  और यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम सामने वाले पर मानसिक हिंसा करते हैं। इसलिए अच्छा दिखना और देखना हमें खुद आना चाहिए।  

Tuesday, July 17, 2012

इंटरनेट से हम भी हो रहे हैं प्रभावित


समय जैसे-जैसे भागता है वह अपने पीछे हमारे लिए कुछ न कुछ छोड़कर चलता जाता है। यह समय की खूबी भी है और कमी भी। हम खुद को इस कदर ढ़ाल चुके हैं कि अब इंटरनेट हमारे लिए न होकर हम इंटरनेट के लिए ही हो गए हैं। आज जिस स्तर से सूचना तकनीक और प्रौद्योगिकी रिकॉर्ड तोड़ बुलंदियों को छू रही है  उसी स्तर से लोगो का भी प्रभावित होना तय है। तकनीक से आज किसी भी वर्ग का व्यक्ति अछूता नहीं रह गया है।

एक बड़े स्तर पर सोशल नेटवर्किंग के माध्यम से फैलती ये सूचनाएं एक ओर तो लोगों को पास लाने-आपस में जोड़ने का दावा करती हैं तो वहीं ये दूसरी ओर लोगों को एक-दूसरे से दूर करने का भी काम कर रही हैं। यह हमारे बीच एक बड़ी समस्या का रूप धारण करने जा रही है। हालांकि अभी हम इसके प्रभाव या परिणामों के आंकलन कर पाने से ज्यादा इसके शिकार बनने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। जो हमें एक ग़लत दिशा में बढ़ने को उकसा रहा है।
आलम ऐसा हो गया है कि हमें यह जानकारी तो पूरी होती है कि फेसबुक पर किसने कब क्या अपडेट किया है लेकिन बगल वाले घर में कौन रहता है इसकी कोई खबर नहीं!
हाल ही में, यह बात सामने आई है कि युवाओं के सोशल नेटवर्किंग साइट्‌स का अधिक इस्तेमाल करने से बुजुर्गों का भी सम्मान घट रहा है। जी! हाल ही में हुए एक सर्वे में यह पाया गया है कि 55 वर्ष से अधिक की उम्र के 81 फीसदी लोगों ने यह माना कि उनके युवा बच्चे इंटरनेट के आदि होने के कारण उनकी बात पर ध्यान नहीं देते। उनका सम्मान नहीं करते हैं।
यह बात गौर करने लायक है कि केवल भारत में नौ करोड़ से अधिक इंटरनेट उपभोक्ता है। जिनमें से 93 फीसदी लोग स्मार्टफोन के ज़रिये इंटरनेट का इस्तेमाल और 88 फीसदी देर रात तक फेसबुक से चैटिंग करते हैं। इंटरनेट अब लोगों के जीवन को पूरी तरह प्रभावित कर चुका है। यूरो आरएसजीसी द्वारा किए गए सर्वे से यह बात सामने आई है कि इंटरनेट के इस्तेमाल से 69 फीसदी लोग शारीरिक रूप से और 64 फीसदी आलसी हो गए हैं। लोग अपना अधिकांश समय स्क्रीन के आगे बैठे-बैठे बिता देते हैं।
कुछ चौंका देने वाले ऐसे आंकड़े भी सामने आए हैं जिनमें 32 फीसदी भारतीय अभिभावकों ने यह माना है कि उनके बच्चे तकनीक और प्रोद्योगिकी का ग़लत रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं। 
हाल ही में, जापान के शिक्षाशास्त्रियों ने यह चिंता जताई है कि उनके बच्चे बिना कैलकुलेटर के जोड़ना घटाना ही भूल गए हैं। वहीं चीन में ऐसे केंद्रों की स्थापना की जा रही है जहां बच्चों को केवल इसलिए भेजा जाता है ताकि वे वहां रहकर कुछ समय के लिए खुद को इंटरनेट से दूर रख सकें।
इंग्लैंड में हुए ताजा सर्वे से यह बात पता चली है कि साल में जितने तलाक होते हैं उनके एक-तिहाई फेसबुक के कारण होते हैं। बल्कि अब यह प्रवृति भारत में भी देखी जा रही है।
बीते माह तमिलनाडु राज्य के छोटे से शहर में एक पत्नी ने अपने पति को इसलिए तलाक दे दिया कि उसने फेसबुक पर अपनी सही जानकारी नहीं दी थी। अदालत के अनुसार फेसबुक पोस्ट व फोटो मानसिक  क्रूरता के साक्ष्य बन सकते हैं।
यह तो बात हुई एक व्यक्तिगत प्रभाव की लेकिन बड़े स्तर पर आए बदलावों की ओर देखा जाए तो वहां भी कुछ ऐसा ही है।
 

आजकल कई कंपनियो ने अपने इंटरव्यू में ऐसी पॅालिसी बना ली हैं कि सोशल नेटवर्किंग में एक्टिव रहने वाले व्यक्ति को ही प्राथमिकता दी जाएगी। इसका मतलब यह एक भेदभाव को जन्म दे रहा है। साथ ही एक ब्रिटिश फर्म गार्टनर के सर्वे के अनुसार, यह बात सामने आई है कि अब कंपनियां अपने कर्मचारियों को नियुक्त करने से पहले सोशल नेटवर्किंग साइट पर मौजूद उनके प्रोफाइल को खंगाला जाता है जिससे कि उनकी मानसिकता का अंदाजा लगाया जा सके। इस तरह की चयन प्रक्रिया में आने वाले सालों मेंे इजाफा होने की पूरी संभावनाएं हैं।
 

खैर, सवाल यह है कि किया क्या जाए? इन साइटों या इंटरनेट को प्रतिबंधित भी नहीं किया जा सकता। ऐसे माहौल में जहां डिजिटल दुनिया का नशा हम सब पर अपना असर तेज़ करता जा रहा है वहां सतर्कता एक बड़ी जरूरत बन गई है। इंटरनेट से बढ़ती विकृतियों को समय रहते रोका भी जा सकता है बशर्ते आप खुद को इस सुरसा  के खुले मुंह में चल कर जाने से रोक सकें।     
 


Friday, June 8, 2012

विकलांगता बनाम विकलांग व्यवस्था




विकलांगता एक ऐसी अवस्था का नाम है जो मनुष्य को शारीरिक या मानसिक स्तर पर अक्षम बनाती है. भारत में विकलांगों का प्रतिशत स्पष्ट नहीं है. 2001 के सरकारी आकंड़ों में इनकी संख्या 2 .17 करोड़ बताई गई, जबकि स्यवंसेवी संगठनों और मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने इनकी संख्या 10 करोड़ तक बताई है. विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी आकंड़ों में इतना बड़ा अंतर दर्शाता है कि जब विकलांगों कि गणना ही ठीक से नहीं कि जा सकी तो उनके लिए सुविधाओं का क्या हिसाब हो सकता है ? इन्हें मूलभूत आवश्यक सुविधाओं भी नहीं मिल पाती. कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं इनका भला करने आती हैं तो उनमें से कुछ आशा किरण होमबन जाती हैं . सरकार द्वारा दी गई सुविधाओं में दशकों से कोई बदलाव कि जरुरत नाहिंन समझी गई.
यदि विकलांगों के कल्याण के लिए कुछ कार्य किए जाते हैं तो वो अमीरों द्वारा दया या कृपा भाव से ही किया जाता है. समाज के इस हिस्से को दया या कृपा से अधिक एक ऐसे सहयोग कि जरुरत है जो उन्हें मुख्य धारा से जोड़ सके. आमतौर पर विकलांगों को सार्वजनिक स्थानों जैसे स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल आदि में हेय दृष्टि से देखा जाता और कहा जाता है कि इन्हें इन सबकी क्या जरुरत है? आज विकलांग व्यक्ति अपनी विकलांगता से अधिक विकलांग व्यवस्था से पीड़ित है. संवेदनहीन व्यवस्था के कारण एक विकलांग व्यक्ति को जीवन के हर मोड़ पर मनोवैज्ञानिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है. जो उसे अपनी विकलांगता से भी अधिक परेशान करती है.
समाज को इस सन्दर्भ में अधिक परिपक्व होने कि जरुरत है. इसके लिए ब्लैक, तारे ज़मीन पर या इक़बाल जैसी फिल्मों या नाटकों का प्रसारण किया जाये जिनसे समाज को ऐसी किसी अक्षमता या विकलांगता से ग्रसित लोगों की भावनाओं और समस्याओं को समझाया जा सके और इससे स्वयं विकलांग भी प्रेरित और प्रोत्साहित होंगे.
दूरदर्शन ने सबसे पहले मूक बधिरों के लिए समाचार का प्रसारण शुरू किया था जो आज भी जारी है. आज जब खबरिया चैनलों की बाढ़ सी आ चुकी है तब भी किसी अन्य चैनल ने ऐसी कोई पहल करने की कोशिश नहीं की. सरकार को इस सम्बन्ध में न सिर्फ खबरिया चैनल बल्कि मनोरंजन चैनलों को भी आवश्यक निर्देश जारी करने चाहिए की वे विकलांग लोगों के लिए कार्यक्रम बनायें. इसी प्रकार नेत्रहीनों को स्कूलों या कालेजों में कम्प्युटर या ब्रेल लिपि आदि में लिखने पढने और काम करने का प्रसिक्षण दिया जाए. देखने में अक्षम लोग बोलने में सक्षम होने के बावजूद वे सामान्य रूप से वाद-विवाद, चर्चा या अन्य क्रियाकलापों के लिए आगे नहीं आ पाते. इन्हें रेडियो, टी.वी. पर बोलने के साथ-साथ अच्छे लेखन का प्रशिक्षण देकर इनकी प्रतिभाओं को दिशा दी जा सकती है.
ऐसे बच्चे जो आंशिक रूप से अंधे हों उनके लिए सामान्य बच्चों की तरह ही कविता, कहानियां और कार्टूनों की किताबें तैयार की जानी चाहिए. उनमें बड़े अक्षरों में लिखा जा सकता है जिसे पढने में वे सक्षम हों. लेकिन इस और ध्यान ही नहीं दिया जाता. बल्कि आंशिक रूप से अंधों को भी समाज में अँधा मान लिया जाता है.
भारत में विकलांगों के लिए तकनिकी उपकरणों का विदेशों की तुलना में औद्योगिक रूप से अभाव है. शारीरिक विकलांगों के लिए स्वचालित व्हीलचेयर्स का निर्माण कम दामों में अधिक मात्रा में करना होगा. स्कूल, कॉलेजों, शौचालयों या सार्वजनिक वाहनों में विकलांगों के लिए विशेष सुविदाह्यें होनी चाहिए ताकि वे स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बन सकें. इन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए कंप्यूटर, सिलाई, कधी, टाइपिंग, लेखन कार्य, आपरेटर जैसे बैठे रहकर कर सकने वाले कार्यों के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए . इनसे जुड़े प्रसिक्षण गृह बनाये जाने चाहिए .
कई बार बसों के इंतज़ार में खड़े नेत्रहीनों को भी लोग धक्का देकर आगे निकल जाते हैं, लोगों को इस रवैये से बाज आना होगा . सरकार को इसे दंडनीय अपराध के तौर पर देखना चाहिए . समाज को इन लोगों को समझने की कोशिश करनी चाहिए. यूनेस्को के अनुसार ये विकलांग या अक्षम नहीं बल्कि स्पेशल गॉड गिफ्टेडहैं.
हमें एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जो विकलांगों को उपकृतकरने के बजाय उनमें आत्म-विश्वास, आत्म-गौरव का भाव पैदा कर सके . विकलांगों के प्रति समाक का सकारात्मक दृष्टिकोण इस दिशा में पहला सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है .

बदरंग होती ठिठोली


मीडिया का वर्चस्व भारतीय समाज में निरंतर अपना जाल बुनता जा रहा है. एक वक़्त ऐसा भी था जब घरों में टेलीविजन होना एक बड़ी बात होती थी. फिर लगभग इसके एक दशक बाद ही सभी घरों के शोकेस में टेलीविजन ने अपनी जगह पक्की कर ली. घरों में टीवी की पहुँच के बाद बारी आई केबल टीवी की, फिर तो केबल के बिना टीवी अधूरा लगने लगा. जब केबल टीवी से कार्यक्रमों के प्रसारण होने लगे तो सभी औद्योगिक-राजनीतिक (आश्चर्यचकित न हों) घरानों ने अपने-अपने चैनल ताश के पत्तों की तरह दर्शकों के आगे बिछा दिए.
समय के साथ तकनीकी विकास ने नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए जो नई-नई कंपनियों के डीटूएच यानि डायरेक्ट टू होम और थ्री डी के रूप में हमारे सामने आये. आज जितने कार्यक्रमों के चैनल हैं उतने ही चैनलों पर ठिठौली भरे कार्यक्रमों की बाढ़ ही आ गई है. ये अलग-अलग होते हैं फिर भी इन सभी पर मजाक का केंद्र या विषय महिलाओंको ही बनाया जाता है. महिलाओं को ही केंद्र में रखकर भद्दे और अश्लील मज़ाक किए जाते हैं. इन कार्यक्रमों मेंऑडियंसबनकर आये लोग अश्लील मज़ाकों पर खुश होकर सीटी बजाते हैं और तालियाँ पीटते हैं तो कुर्सी पर बैठे जज अपनी कुर्सियों पर उछलने लगते हैं और दस-दस नंबर भी देते हैं. भारतीय समाज पुरुषसत्तात्मक समाज होने के कारण ऐसी अश्लीलता को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं करता. महिलाओं को बुरा लगता है तो भी वे इसे केवल मजाक सोचकर बैठ जाती हैं.
टीवी पर प्रसारित एक ठिठौली के कार्यक्रम लाफ्टर चैलेंजमें कलाकार राजू श्रीवास्तव ने अपनी एक प्रस्तुति में एक दक्षिण भारतीय की नक़ल करते हुए कहा कि दक्षिण भारतीय फिल्मों में 7-8 रेप के बिना उसमें मज़ा नही आता. लड़की का बचकर भागना और उसके पीछे गुंडों का भागना ऐसा संघर्ष देखकर फिल्म अच्छी लगती है.इसके साथ ही वो अजीबो गरीब करतब करके भी दिखाते हैं. अन्य कलाकार भी मरदाना कमजोरी, सेक्स और साथ सोना आदि जैसे अन्तरंग विषयों पर मजाक बनाते हैं. एक अन्य कार्यक्रम कॉमेडी सर्कसमें होस्टिंग कर रही लड़की को बहुत छोटे कपड़ों में बुलाया जाता है और अधिकतर मजाक उसके काम कपड़ों और अर्धनग्न शरीर पर ही दिखाए जाते हैं जबकि यह मना जाता है कि ये कार्यक्रम सभी वर्गों के लिए बनाये जाते हैं.
अब प्रश्न ये उठता है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय समाज की मानसिकता को ख़राब करने वाले ऐसे कार्यक्रमों के प्रसारण पर क्यों ऊँगली नहीं उठता ? अश्लीलता की हद पार कर रहे इन कार्यक्रमों पर कोई सीमा क्यों नहीं तय की जाती ? समाज में दोयम दर्ज़े की मानी जाने वाली स्त्री जातिक्यों समाज के लिए मजाकका विषय बने जा रही है ? महिला कल्याण एवं विकास मंत्रालय इस ओर ध्यान क्यों नहीं देता ?

Monday, June 4, 2012

टीचिंग या चीटिंग?


वन्दना शर्मा
पिछले दिनों अपनी परिक्षाओं  के चलते मैं परीक्षा हॉल में बैठी थी। अपने लिखते से जा रहे हाथों को कुछ समय के लिए थोड़ा आराम दिया। खाली बैठे मैंने यूं ही इधर-उधर बैठे लोगों को देखा। परीक्षा में बैठने वालों का स्वभाव अक्सर ऐसा बन जाता है कि वह खुद से ज्यादा औरो पर नज़र रखते हैं।
मुझसे अगली दो पंक्तियों में तकरीबन तीस से पैंतालिस साल की कई महिलाएं परीक्षा दे रहीं थी। इस उम्र में जब महिलाएं बच्चों और परिवार के बीच फंसकर रह जाती हैं या उनकी पढ़ने की उम्र निकल गई, सोचकर बैठ जाती हैं लेकिन वो आगे बढ़ रही हैं। उन्हें देखकर अच्छा लगा। बहुत-सी महिलाएं पढ़ी-लिखी होने के बावजूद कुछ न करने की बात को अपने परिवार और बच्चों को संभालने का दंभ भरकर टाल जाती हैं।
खैर, बात हो रही थी परीक्षा दे रही उन अधेड़ महिलाओं की। जो गर्मी से परेशान घूम रही परीक्षक से नज़रें बचाकर अब कुछ बातें कर रही थीं। अनायास ही ध्यान गया कि वो कुछ का़ग़ज़ों की अदला-अदली कर रही थी। देखकर हैरानी हुई कि इस उम्र के लोगांे को तो मैंने बच्चों को समझाते देखा है कि चीटिंग करना ग़लत है।  उन महिलाओं की उम्र से ऐसी अभद्रता की कोई आशा नहीं की जा सकती थी।
जब आप उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके हों तो आपसे तो कम से कम ऐसी अपेक्षाएं रखी जा सकती हैं कि आप देश को बेहतर बनाने में कोई सहयोग जरूर करेंगे।
यदि उच्चशिक्षित लोग ही ऐसी बेहुदगी दिखा रहे हों तो उनसे कैसी उम्मीद रखी जा सकती है?
उन महिलाओं से जब मैंने परीक्षा हॉल से बाहर आकर एक फॉर्मल सी बातचीत के दौरान यह पूछा कि आप लोग करते क्या हैं? तो तपाक से उनमें से एक महिला ने उत्तर दिया कि हम सब इंस्टीट्यूट में टीचर हैं।
ऐसा उत्तर पाकर कोई भी लाज़वाब रह जाता! सवाल तो ये था कि ये क्या बेहतर करती होंगी टीचिंग या चीटिंग? ये क्या कहकर किसी बच्चे को चीटिंग करने से रोकते होंगे। सोचिये ज़रा...      

Monday, May 28, 2012

``कसूर नहीं था इनका``


कल एक अजीब सी बात हुई
अपनी ही धुन में चली जा रही थी
कोई आया या पता नहीं मैं ही गई...
बस हम टकरा गए
एक फिल्मी सा सीन था कि
पहले वो संभल गए
और थाम लिया अपनी बाहों में
आ गए इतने करीब जो
सांसें भी सुन सकें...
नज़र भर देखा
अभी भी थामे हुए हैं
शायद
मैं ही इस आगोश में हूं
अचानक!
कानों में कुछ आवाजों पड़ीं
`` अरे भाई, अब तो चलो...``
दो होने लगी अब वो
चार होती सी आंखें
अपने पैरों पर खड़े होकर
``कसूर नहीं था इनका``
मैं मुस्कुराई...
और चली आई!!
(दौड़कर मैट्रो की भीड़ में छिप गई)

 


Friday, May 18, 2012

आखिर कहां है शिक्षा का ....... अधिकार ?



पिछले दिनों मुंबई शहर में चौपाटी, मरीन ड्राइव की शाम को करीब से देखने का मौका मिला। कुछ देर टहलने के बाद समन्दर से आती ठण्डी हवा मे कुछ देर के लिये मैं और मेरी मित्र बैठ गये।
किनारे पर जरा बैठने पर ही आसपास के छोटे-मोटे हॉकर्स ने अपना काम शुरू  कर दिया जिनसे हम किसी न किसी तरह पीछा छुड़ाते जा रहे थे। इन्हीं के बीच में से दौड़ती हुई सात साल की कविता हमारे पास आकर बैठ गई।
कविता के हाथ में कुछ रंग -बिरंगे धागे थे और गले में लटकी टोकरी में अक्षर लिखे ढ़ेर सारे मोती। उसकी मुस्कराहट में एक अलग सी बात थी।
इन मोतियों को पिरोकर नाम लिखकर बेचने का काम करती है कविता। उसका छोटा भाई और मां भी घूम-घूम कर यही काम करते है।
कविता कभी स्कूल नहीं गई लेकिन उसे किसी का नाम लिखने के लिए अक्षर बताओं तो वह आसानी से ढ़ूंढ लेती है। मैंने उससे पूछा कि जब तुम कभी स्कूल नहीं गई तो अक्षरों को कैसे..........?
फिर उसने अपनी प्यारी सी मुस्कुराहट के साथ हमारी तरफ देखा और बताया कि मैं इस काम को करते-करते इन्हें पहचानना सीख गई हूं।
टहलते हुए ऐसी कई और कविताएं और उसके छोटे भाई दिखे। छोटी उम्र में इन बच्चों के नाजुक कंधों पर परिवार की जरूरतों को पूरा करने का बोझ लादा जा रहा है।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 12वीं तक बालिकाओं के लिए मुफ्त शिक्षा  उपलब्ध कराई जा रही है। यह सच है कि जहां एक ओर बच्चे का कामयाब बनाने का श्रेय माता-पिता को जाता है तो वहीं दूसरी ओर बच्चे को गुमनामी और शिक्षा के अंधेरे में धकेलने के जिम्मेदार भी माता-पिता ही है।
1 अप्रैल को बच्चों के मुफ्त तथा अनिवार्य षिक्षा के अधिकार कानून,2009 (आरटीई,2009) को लागू हुए दो साल पूरे हो चुके हैं। इस अवसर पर बच्चों के अधिकारों के लिये 30 गैर-सरकारी संगठनों के अम्ब्रैला(छतरी) संगठन क्राई ने एक रिपोर्ट तैयार की है जिससे यह स्पष्ट है कि अभी भी देश में इस अधिकार के लिये काफी चुनौतियां सामने मुंह बाए खड़ी हैं। 
2011 की राष्ट्रीय वार्षिक  स्तर की रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार लगभग 50 फीसदी सरकारी स्कूल ऐसे हैं जिनमें लड़कियों के लिये अलग से षौचालय नहीं है। स्कूलों में का गुणवत्ता स्तर भी कुछ नहीं है। एक-तिहाई स्कूल ऐसे है जिनमें लाइब्रेरी और मैदान नहीं है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले चौथी कक्षा के छात्र पहली कक्षा के सवालों को भी हल नहीं कर पाते हैं। ठीक से वर्णमाला नहीं पहचान पाते हैं। इसे देख पता चलता है कि देष में एक ऐसे षिक्षित फौज तैयार की जा रही है जो आगे चलकर अषिक्षित ही कहलाने वाली है।
भारत सरकार को शिक्षा के अधिकार को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए थे लेकिन अभी तक इनमें परिपक्वता की कमी है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार अपना ध्यान समाज के उस हिस्से पर केन्द्रीत करें जो अभी तक शिक्षा  से अछूता है।
हालांकि सर्वशिक्षा अभियान समाज में कुछ हद तक षिक्षा के द्वार खोले हैं लेकिन अभी भी स्थिति असंतोषजनक बनी हुई है। देश में 115 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अपनी प्राथमिक कक्षाओं में पढने के लिये भी स्कूल तक नहीं जाते हैं। जिनके माता-पिता अभी भी पढ़ाई के महत्व से अनजान बने हुए है।