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Saturday, April 16, 2011

ये अकेलापन है या शहरीपन ?


मीडिया में कल से  लगातार  खबर  आ  रही  थी कि नोएडा में रहने वाली दो बहने कैसे खुद-बा-खुद चलकर मौत के मुंह  में जा रही है. और आज खबर आई कि  उन दो बहनों में से एक ने दम तोड़ दिया. कैसे दोनों की हँसती-खेलती ज़िन्दगी बर्बादी की तरफ चलती चली गई. परिवार में पिता की मृत्यु  ने उन्हें इतना झकजोर दिया कि वे अपने घर से बाहर ही नही निकली और सात महीने अपने घर में  कैद होकर बिता दिए. अकेलेपन से त्रस्त होकर अपने शरीर  को कंकाल में तब्दील कर दिया.  इतना ज्यादा अवसाद उनके मनन में घर कर गया कि उन्हें यही अकेलापन  बेहतर लगने  लगा. यह बताया जा रहा है कि वे दोनों कुछ दिन तो अपने पालतू कुत्ते के साथ रहीं और उसकी भी मौत हो गई तो भी वे  उसके साथ ही रहती रही.  पड़ोसियों ने बताया कि उनका एक  बड़ा भाई है  वह भी उनका साथ भी छोड़ चुका था.
इन बहनों  की इस भयावह स्थिति का अंदाजा लगाना भी बड़ा मुश्किल है कि अवसाद इतना अधिक किस प्रकार हो सकता है कि कोई खाना बंद कर दे, लोगों से मिलना छोड़ दे. इस तरह खुद को कष्ट देकर अपनी जान दे देना कितना अजीब लगता है सुनकर ?
लेकिन ये सोचने कि बात है कि इतना सब कुछ हो गया लेकिन आस पड़ोस के लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नही दी और जब मीडिया दरवाजे पर पहुंची तो लोग इतनी जानकारी दे देते हैं.
हालांकि यह ऐसा कोई पहला वाकया सामने नही आया है इससे पहले भी दिल्ली की एक पढ़ी लिखी महिला का मामला देखा गया था. वह अपनी तीन महीने पहले मरी हुई माँ के साथ रहकर दिन बिता रही थी. और गहरे अवसाद में जी रही थी . इस मामले में भी लोगों की इसी तरह की प्रतिक्रिया रही की उन्होंने साड़ी बातें मीडिया को तो बताई लेकिन खुद उस इंसान का सहारा नही बन पाए.  
  क्या इतना सब  होना शहरी जीवन का परिणाम है? यही है  शहरी जीवन जीने का परिणाम ? क्यों यहाँ कोई किसी के मरने जीने से मतलब नही रखता ? कोई घर से बाहर इतने दिनों से नही आता तो घर के सामने  या बगल के लोगों को कुछ फर्क ही नही पड़ रहा? क्या ऐसा गावों में होना संभव है? नहीं. तो फिर क्या यह मान लिया जाये कि शहरी लोगों में संवेदनाएं नही होतीं. और ऐसा नही है तो ऐसी घटनाओं को सिर्फ शहरो में ही क्यों अंजाम दिया जाता है ?
गाँवों में किसी के घर में कोई दुर्घटना घट जाती है तो सभी उसके साथ दुःख बांटने के लिए पास आकर बैठते हैं और उस इंसान को सांत्वना देते हैं. जितना हो सके वे एक दूसरे के घर में हँसी- ख़ुशी या विपरीत परिस्थितियों में हमेशा साथ निभाते हैं. यहाँ शहरों में लोगों को पता ही नही चलता कि बगल वाले घर में आज ढोल क्यों बज रहा है? सामने वाले के घर में लोग कितने रहते हैं?   
शहरी समाज इंसानी प्रवर्ति भी खोता नजर आ रहा है.  क्यों आज कोई किसी के बारे में कुछ जानने तक की इच्छा नही रखता? क्या उसकी जिज्ञासाएं ख़त्म हो चुकी हैं? क्या ऐसे ही बन जातें हैं शहरों में पढ़े-लिखे कहलाने वाले लोग? क्या शहरी जीवन और अकेलापन आज एक- दूसरे के पर्याय बन चुके  हैं? 

1 comment:

  1. परमादरणीय वंदना शर्मा,
    सर्वप्रथम आपको 'किश्ती' ब्लौग के प्रकाशन हेतु बहुत सारी बधाई और आशीर्वाद....,
    आप अनवरत हिंदी की सेवा पूर्ण मनोयोग से करती रहें |
    'अभिव्यक्तियाँ बोलती हैं' {http://drmanojjpr.blogspot.com/} को भी एक बार अवश्य देखें...
    आपका सदैव शुभेक्षु
    मनोज चतुर्वेदी
    आवास संख्या-एक, कॉलेज आवास परिसर,
    चिडावा( राजस्थान)- ३३३ ०३१

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