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Thursday, November 10, 2011

कैसे मिले वापसी का अधिकार


अन्ना हजारे के आन्दोलन ने पूरे देश को एक साथ एक  झंडे के नीचे लाकर खड़ा कर दिया. आज जो अन्ना की मांगें  है वही पूरे देश की आवाज़ बन जाती है. अन्ना अपनी मांगों का दायरा थोड़ा बढा चुके हैं. देश के भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं का रवैया देख उन्होंने चुनाव सुधारों की भी मांग कर डाली.
अन्ना  और उनकी टीम की मांग है कि देश के नागरिकों को राईट टू रिकॉल यानी वापसी का अधिकार और राईट टू रिजेक्ट यानी नकारने या खारिज करने का अधिकार सुनिश्चित किया जाए. अन्ना का मानना है कि सांसद जनता के सेवक हैं और जनता मालिक. यदि वे जनता के अनुकूल होकर या अपना काम वफादारी के साथ नहीं  करते हैं तो उन्हें हटाने का अधिकार जनता के पास होना ही चाहिए .
उनका ऐसा मानना ठीक ही है. 1974 में जय प्रकाश नारायण के आन्दोलन में भी वापसी के अधिकार की मांग उठी थी लेकिन तब भी यह केवल बहस का मुद्दा बनकर रह गई थी. जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है तब जाकर कोई व्यक्ति जनप्रतिनिधि के रूप मे जाना जाता है. जनता ही उस पर भरोसा कर  वहां तक पहुंचाती है तो जनता के पास  यह अधिकार होना भी जरूरी है कि वह उसे वापस भी बुला सके. आज बाहुबल और धनबल के आधार पर बहुत से भ्रष्ट अपराधी चरित्र के लोग जनप्रतिनिधि बन बैठे हैं. हाल ये है की किसी किसी तरह ये लोग जनता का दिल जीत कर या उन्हें छोटे-मोटे लालच से वोट बटोर ले जाते हैं.  
भारतीय चुनाव व्यवस्था ऐसी है कि जिस राज्य में मतदान चरण चल रहे होते हैं वहां ह्त्या-मारपीट नहीं तो, बूथ केप्चरिंग की घटनाएं चुनावों के परिणाम से पहले आती हैं. कुछ राज्यों में ऐसा है भी. जिन के पास अथाह धन दौलत है या वे स्वयं अपराधी प्रवृति के हैं वही चुनाव लड़ने के लिए उपयुक्त मने जाने लगे है. भारतीय राजनीति को चंद परिवार मिलकर चला रहे हैं. उनमे से कोई चोर निकलता है तो वह पकडे जाने के बाद अपने स्थान पर मौसेरे भाइयों को बिठा देते हैं

 जिन राज्यों  में अधिक गरीबी है शिक्षा का स्तर निम्न है वहां बाहुबली आसानी से सांसद या विधायक बन जाते हैं. इन राज्यों में वोटिंग का प्रतिशत भी ज्यादा देखा जाता  है. ये जनप्रतिनिधि जनता को अपने हाथों की कठपुतली मानकर उन्हें चलाने  लगते  हैं. विकास के लिए  मिली धनराशी को अपने व्यक्तिगत मनोररथ पूरे करने  में लग जाते हैं. इस तरह इनका एक मात्र लक्ष्य पैसा कमाना बन जाता है नाकि  जनसेवा. इस  क्षेत्र में एक सराहनीय कदम बिहार में उठाया गया है. बिहार के  मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने नगरपार्षदों को वापस बुलाने का अधिका देने का फैसला किया है.    

हालांकि वापसी और नकारने के आधार पर चर्चा और गहमागहमी साथ-साथ बढ़ रहीं हैं. चुनावी विशेषज्ञों में भी इस बात पर बहस छिड गई है. उनमे मतभेद  बने  हुए कि  सबसे  बड़े  लोकतंत्र  की  चुनाव  प्रक्रिया  में  इस  तरह  के बदलाव कारगर  हो  पायंगे  या  नहीं.  

मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई कुरैशी राईट टू रिजेक्ट रिकॉल  पर अपनी असहमति स्पष्ट कर  चुके  हैं. लेकिन  वहीँ  कानून    विधि  मंत्री  सलमान  खुर्शीद ने  इस  पर एक  सर्वदलीय बैठक  कर  विचार  करने  की  बात  भी  कह  रहे  हैं. चुनाव आयोग ने भारत को एक बड़े लोकतंत्र में यह काम आसान नही होगा कहकर अन्ना की इस मांग को सिरे से नकार दिया. लेकिन देश   से बाहर भी यह अधिकार दिया गया है. अमरीका के  कई राज्यों में भी यह  अधिकार दिया जा चुका है. स्विट्जरलैं  में सबसे पहले यह अधिकार दिया गयासरकार इस अधिकार को लागू करेगी या नहीं अभी स्पष्ट नहीं है.  

यह विचार करने की बात है यदि एक उम्मीदवार को जनता नकार देती है तो यह कैसे पता चलेगा कि नया प्रतिनिधि उससे बेहतर ही होगा? अगर नया भी उसी तरह व्यवहार करने लगे तो बार-बार चुनाव प्रक्रिया को दोहराना जटिल होता जायगा. इन अधिकारों की मांग तो जनता के हित में है पर क्या यह इतने बड़े स्तर पर सही व्यक्ति का चुनाव कर पाने में सक्षम होगा?    

2 comments:

  1. बेहद ही बढिया समझाते हुए लिखा है। हमेशा लगे रहो ऐसे बेहतरीन जानकारी देने में।

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  2. Thanks sandeep ji. Aap bhi isi tarah hauslaafzai aur sahyog karen.

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