Powered By Blogger

Monday, November 14, 2011

भारतीय सिनेमा का बदलता चेहरा

 
विश्व की संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति की एक विशिष्ट पहचान है . भारत की सांस्कृतिक एकता को विभिन्न  संस्कृतियों के लोगों तक पहुंचाने में सिनेमा ने ही अलग -अलग परिवेश और क्षेत्रों  की संस्कृतियों से  जनमानस को जोड़ा और अवगत कराया . कुछ फिल्मों में भारतीय संस्कृति का ग्रामीण परिवेश,भाषा या बोलचाल , रहन- सहन और समस्याओं को इतने बेहतर तरीके से दिखाया गया कि उन्होंने विदेशों तक में बड़ी प्रशंसा  बटोरी है . ऐसी फिल्मों के लिए पुराने दौर की फिल्मों में  दो बीघा ज़मीन , मदर इंडिया ,नदिया के पार , पूरब और पश्चिम, राजपूत , क्षत्रिय और जिस देश में गंगा बहती है,  आदि इसके उत्क्रृष्ट उदहारण है . वहीँ नए दौर की फिल्मों में स्वदेश , लगान ,पीपली लाइव  और  वेल डन अब्बा मानी जा सकती हैं . ‘वाटर’ एक ऐसी फिल्म है जो भारतीय कुरीतियों  के कारण विधवाओं  की दुर्दशा पर बनाई गई विवादित फिल्म रही है . पर यह विवाद के कारण ज्यादा लोगों तक नहीं  पहुच पाई  है |
दो बीघा ज़मीन (1953) और पीपली लाइव (2010) दोनों भारतीय किसानों   की खराब स्थितियों पर बनाई  गई फ़िल्में  हैं  . ध्यान दिया जाये तो यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि ६ दशकों बाद भी भारतीय किसानों  कि स्थिति  ज्यों की त्यों बनी हुई है .
बताया जा रहा है की आजकल निर्देशक प्रकाश झा  ‘आरक्षण ‘ के मुद्दे पर एक फिल्म बना रहे  हैं  .  जिसमे अभिनेता अमिताभ बच्चन और सैफ अली खान  को संस्कृत में संवाद करते हुए दिखाया जायेगा . इसलिए सैफ अली खान को संस्कृत सीखनी पड़ रही है . यदि इसे बेहतर तरीके से पेश किया गया तो यह फिल्म,  लुप्त हो रही भारत की सभी भाषाओं की जननी ‘ संस्कृत’ के पुनुरुत्थान में सहायक हो सकती है .


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो ऐसी फ़िल्में अधिक बनाई जाती हैं जो केवल घटिया स्तर की कोमेडी के साथ- साथ अश्लीलता से भरपूर होती हैं . आज वे फिल्मे अधिक चर्चा में होती हैं जिनमे न्यूड सीन या किसिंग सीन  दिखाए जाते हैं . फिल्म के प्रोमो तो आजकल इनके बिना  अधूरे ही माने जाते  हैं.  ऐसी ही फिल्मे आजकल युवाओं द्वारा ज्यादा देखी और पसंद की जा रही  हैं.  बड़ी  संख्या में  दर्शक  इन फिल्मों को मिल जाते हैं . सिनेमाघरों में ऐसी फिल्म लग जाने के साथ साथ हाउसफुल  के बोर्ड भी टंग जाते हैं . ज्यादा कमाई  होती देख निर्माता निर्देशक भी ऐसी ही फिल्मों को तवज्जो देने लगते हैं . पिछले  सप्ताह रिलीज हुई फिल्म ‘ तनु वेड्स मनु ‘ ने केवल एक हफ्ते में १ करोड़ की कमाई कर ली है . ऐसी फिल्मो से दर्शकों का  मनोरंजन तो हो जाता है लेकिन उन्हें कोई सन्देश नही मिल पाता . ऐसी फिल्मों का निर्माण कम किया जाता है जो समाज को कुछ सोचने को मजबूर करे  यानी समाजहित के लिए बनाई गई हो . इस तरह कि फिल्मों  को कुछ निर्माता बनाते भी है तो उन्हें दर्शक नही मिल  पाते .  फिल्मों के नाम पर आजकल बहुत ज्यादा अपव्यय किया जाने लगा है . सन २००९ में आई फिल्म गोलमाल- २ में एक गाना ऐसा फिल्माया गया था जो ६ करोड़ में तैयार किया गया था .  तो दूसरी और  २००८  में  आई दक्षिण भारतीय फिल्म ‘ रोबोट’  अब तक के सबसे बड़े बजट कि फिल्म है जो २०० करोड़ में बन कर तैयार हुई थी . लेकिन यह फिल्म दक्षिण भारत को छोड़कर और  कही पसंद नही की गई क्योकि यह केवल मशीनों पर ही बनाई गई थी .  इस तरह के अपव्यय में कमी लाकर  ऐसी फिल्मो का निर्माण किया जाना  ज्यादा बेहतर है जो समाज के लिए जानकारी पूर्ण हो और साथ साथ मनोरंजक भी हों . थ्री इडियट्स  आमिर खान द्वारा बनाई  गई ऐसी ही  फिल्म का उदहारण हो सकती है . ऐसी फिल्मों की जरुरत है जो युवाओं को एक बेहतर सोच और भविष्य की ओर अग्रसर कर पायें . इसके लिए आवश्यकता है  परिपक्व निर्माता- निर्देशकों  की .


No comments:

Post a Comment