पिछले दिनों मुंबई शहर में चौपाटी, मरीन ड्राइव की शाम को करीब से देखने का मौका मिला। कुछ देर टहलने के बाद समन्दर से आती ठण्डी हवा मे कुछ देर के लिये मैं और मेरी मित्र बैठ गये।
किनारे पर जरा बैठने पर ही आसपास के छोटे-मोटे हॉकर्स ने अपना काम शुरू कर दिया जिनसे हम किसी न किसी तरह पीछा छुड़ाते जा रहे थे। इन्हीं के बीच में से दौड़ती हुई सात साल की कविता हमारे पास आकर बैठ गई।
कविता के हाथ में कुछ रंग -बिरंगे धागे थे और गले में लटकी टोकरी में अक्षर लिखे ढ़ेर सारे मोती। उसकी मुस्कराहट में एक अलग सी बात थी।
इन मोतियों को पिरोकर नाम लिखकर बेचने का काम करती है कविता। उसका छोटा भाई और मां भी घूम-घूम कर यही काम करते है।
कविता कभी स्कूल नहीं गई लेकिन उसे किसी का नाम लिखने के लिए अक्षर बताओं तो वह आसानी से ढ़ूंढ लेती है। मैंने उससे पूछा कि जब तुम कभी स्कूल नहीं गई तो अक्षरों को कैसे..........?
फिर उसने अपनी प्यारी सी मुस्कुराहट के साथ हमारी तरफ देखा और बताया कि मैं इस काम को करते-करते इन्हें पहचानना सीख गई हूं।
टहलते हुए ऐसी कई और कविताएं और उसके छोटे भाई दिखे। छोटी उम्र में इन बच्चों के नाजुक कंधों पर परिवार की जरूरतों को पूरा करने का बोझ लादा जा रहा है।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 12वीं तक बालिकाओं के लिए मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराई जा रही है। यह सच है कि जहां एक ओर बच्चे का कामयाब बनाने का श्रेय माता-पिता को जाता है तो वहीं दूसरी ओर बच्चे को गुमनामी और शिक्षा के अंधेरे में धकेलने के जिम्मेदार भी माता-पिता ही है।
1 अप्रैल को बच्चों के मुफ्त तथा अनिवार्य षिक्षा के अधिकार कानून,2009 (आरटीई,2009) को लागू हुए दो साल पूरे हो चुके हैं। इस अवसर पर बच्चों के अधिकारों के लिये 30 गैर-सरकारी संगठनों के अम्ब्रैला(छतरी) संगठन क्राई ने एक रिपोर्ट तैयार की है जिससे यह स्पष्ट है कि अभी भी देश में इस अधिकार के लिये काफी चुनौतियां सामने मुंह बाए खड़ी हैं।
2011 की राष्ट्रीय वार्षिक स्तर की रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार लगभग 50 फीसदी सरकारी स्कूल ऐसे हैं जिनमें लड़कियों के लिये अलग से षौचालय नहीं है। स्कूलों में का गुणवत्ता स्तर भी कुछ नहीं है। एक-तिहाई स्कूल ऐसे है जिनमें लाइब्रेरी और मैदान नहीं है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले चौथी कक्षा के छात्र पहली कक्षा के सवालों को भी हल नहीं कर पाते हैं। ठीक से वर्णमाला नहीं पहचान पाते हैं। इसे देख पता चलता है कि देष में एक ऐसे षिक्षित फौज तैयार की जा रही है जो आगे चलकर अषिक्षित ही कहलाने वाली है।
भारत सरकार को शिक्षा के अधिकार को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए थे लेकिन अभी तक इनमें परिपक्वता की कमी है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार अपना ध्यान समाज के उस हिस्से पर केन्द्रीत करें जो अभी तक शिक्षा से अछूता है।
हालांकि सर्वशिक्षा अभियान समाज में कुछ हद तक षिक्षा के द्वार खोले हैं लेकिन अभी भी स्थिति असंतोषजनक बनी हुई है। देश में 115 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो अपनी प्राथमिक कक्षाओं में पढने के लिये भी स्कूल तक नहीं जाते हैं। जिनके माता-पिता अभी भी पढ़ाई के महत्व से अनजान बने हुए है।
आंकड़े समर्थ हैं
ReplyDeleteहो रहे अनर्थ हैं
इस अनर्थ का साथ मूक रूप से हम सभी दे रहे हैं ...हमें भी कुछ कदम तो उठाने ही होंगे
Deleteऐसे माता पिटा को समझाने कि कोशिश के रूप में
.बेहतरीन प्रस्तुति ......आभार
ReplyDeleteहम आपका स्वागत करते है....
दूसरा ब्रम्हाजी मंदिर आसोतरा में .....
सरहाना के लिए आपका सादर धन्यवाद !
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