कल एक अजीब सी बात हुई
अपनी ही धुन में चली जा रही थी
कोई आया या पता नहीं मैं ही गई...
बस हम टकरा गए
एक फिल्मी सा सीन था कि
पहले वो संभल गए
और थाम लिया अपनी बाहों में
आ गए इतने करीब जो
सांसें भी सुन सकें...
नज़र भर देखा
अभी भी थामे हुए हैं
शायद
मैं ही इस आगोश में हूं
अचानक!
कानों में कुछ आवाजों पड़ीं
`` अरे भाई, अब तो चलो...``
दो होने लगी अब वो
चार होती सी आंखें
अपने पैरों पर खड़े होकर
``कसूर नहीं था इनका``
मैं मुस्कुराई...
और चली आई!!
(दौड़कर मैट्रो की भीड़ में छिप गई)
रचना अछ्छी लगी.मुस्कराहट आना प्राक्रितिक है.
ReplyDeleteसराहना के लिए बहुत धन्यवाद सर, आभार !
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